Friday, January 31, 2025
युद्ध नहीं जिनके जीवन में.....By Poet अर्जुन सिसोदिया
वे भी बहुत अभागे होंगे
या तो प्रण को तोड़ा होगा
या फिर रण से भागे होंगे
दीपक का कुछ अर्थ नहीं है
जब तक तम से नहीं लड़ेगा
दिनकर नहीं प्रभा बाँटेगा
जब तक स्वयं नहीं धधकेगा
कभी दहकती ज्वाला के बिन
कुंदन भला बना है सोना
बिना घिसे मेहंदी ने बोलो
कब पाया है रंग सलौना
जीवन के पथ के राही को
क्षण भर भी विश्राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
अपना अपना युद्ध सभी को
हर युग में लड़ना पड़ता है
और समय के शिलालेख पर
खुद को खुद गढ़ना पड़ता है
सच की खातिर हरिश्चंद्र को
सकुटुम्ब बिक जाना पड़ता
और स्वयं काशी में जाकर
अपना मोल लगाना पड़ता
दासी बनकरके भरती है
पानी पटरानी पनघट में
और खड़ा सम्राट वचन के
कारण काशी के मरघट में
ये अनवरत लड़ा जाता है
होता युद्ध विराम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
हर रिश्ते की कुछ कीमत है
जिसका मोल चुकाना पड़ता
और प्राणपण से जीवन का
हर अनुबंध निभाना पड़ता
सच ने मार्ग त्याग का देखा
झूठ रहा सुख का अभिलाषी
दशरथ मिटे वचन की खातिर
राम जिये होकर वनवासी
पावक पथ से गुजरीं सीता
रही समय की ऐसी इच्छा
देनी पड़ी नियति के कारण
सीता को भी अग्नि परीक्षा
वन को गईं पुनः वैदेही
निरपराध ही सुनो अकारण
जीतीं रहीं उम्रभर बनकर
त्याग और संघर्ष उदाहरण
लिए गर्भ में निज पुत्रों को
वन का कष्ट स्वयं ही झेला
खुद के बल पर लड़ा सिया ने
जीवन का संग्राम अकेला
धनुष तोड़ कर जो लाए थे
अब वो संग में राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
Friday, December 13, 2024
उर्दू शायर बशर नवाज़ की पंक्ति....
उन्हें
कामयाबी में सुकून नजर
आया तो वो दौड़ते
गए
हमें
सुकून में कामयाबी दिखी
तो हम ठहर गए
ख़्वाईशो के बोझ में बशर तू क्या क्या कर रहा है
इतना तो जीना भी नहीं जितना तू मर रहा है
Saturday, October 19, 2024
ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़लें...
दिया जल रहा है हवा चल रही है
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आँखों के चराग़ों में उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे
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वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं
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मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मज़ा याद आ गया
तुम क्यूँ उदास हो गए क्या याद आ गया
कहने को ज़िंदगी थी बहुत मुख़्तसर मगर
कुछ यूँ बसर हुई कि ख़ुदा याद आ गया
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अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं
ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं
इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं
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तिरे दर से उठ कर जिधर जाऊँ मैं
चलूँ दो क़दम और ठहर जाऊँ मैं
सँभाले तो हूँ ख़ुद को तुझ बिन मगर
जो छू ले कोई तो बिखर जाऊँ मैं
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Monday, October 14, 2024
जौन एलिया की शायरी.....
उस के पहलू से लग के चलते हैं……
उस के पहलू
से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने
से टलते हैं
मैं उसी तरह
तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह
बहलते हैं
बंद है मय-कदों
के दरवाज़े
हम तो बस यूँही
चल निकलते हैं
वो है जान अब
हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर
से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़
करें ये कहने में
जो भी ख़ुश
है हम उस से जलते हैं
है उसे दूर
का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं
सँभलते हैं
है अजब फ़ैसले
का सहरा भी
चल न पड़िए
तो पाँव जलते हैं
हो रहा हूँ
मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले
हाथ मलते हैं
तुम बनो रंग
तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने
सुख़न में ढलते हैं
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे……
बे-दिली क्या यूँही
दिन गुज़र जाएँगे
सिर्फ़
ज़िंदा रहे हम तो
मर जाएँगे
कितनी
दिलकश हो तुम कितना
दिल-जू हूँ मैं
क्या
सितम है कि हम
लोग मर जाएँगे
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई…….
हालत-ए-हाल के
सबब हालत-ए-हाल
ही गई
शौक़
में कुछ नहीं गया
शौक़ की ज़िंदगी गई
तेरा
फ़िराक़ जान-ए-जाँ
ऐश था क्या मिरे
लिए
या'नी तिरे फ़िराक़
में ख़ूब शराब पी
गई
तेरे
विसाल के लिए अपने
कमाल के लिए
हालत-ए-दिल कि
थी ख़राब और ख़राब की
गई
उस की उमीद-ए-नाज़ का हम
से ये मान था
कि आप
उम्र
गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी
गई
एक ही हादसा तो
है और वो ये
कि आज तक
बात
नहीं कही गई बात
नहीं सुनी गई
बा'द भी तेरे
जान-ए-जाँ दिल
में रहा अजब समाँ
याद
रही तिरी यहाँ फिर
तिरी याद भी गई
उस के बदन को
दी नुमूद हम ने सुख़न
में और फिर
उस के बदन के
वास्ते एक क़बा भी
सी गई
सेहन-ए-ख़याल-ए-यार में की
न बसर शब-ए-फ़िराक़
जब से वो चाँदना
गया जब से वो
चाँदनी गई
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से.....
चारासाज़ों
की चारा-साज़ी से
दर्द बदनाम
तो नहीं होगा
हाँ दवा दो
मगर ये बतला दो
मुझ को आराम तो नहीं होगा
शर्म दहशत झिझक परेशानी.....
शर्म दहशत झिझक
परेशानी
नाज़ से काम
क्यूँ नहीं लेतीं
आप वो जी मगर
ये सब क्या है
तुम
मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम……
नया
इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें
हम
बिछड़ना
है तो झगड़ा क्यूँ
करें हम
ख़मोशी
से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई
हंगामा बरपा क्यूँ करें
हम
ये काफ़ी है कि हम
दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा
क्यूँ करें हम
वफ़ा
इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का
पीछा क्यूँ करें हम
सुना
दें इस्मत-ए-मरियम का
क़िस्सा
पर अब इस बाब
को वा क्यों करें
हम
ज़ुलेख़ा-ए-अज़ीज़ाँ बात
ये है
भला
घाटे का सौदा क्यों
करें हम
हमारी
ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी
ही तमन्ना क्यूँ करें हम
किया
था अह्द जब लम्हों
में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा
क्यूँ करें हम
उठा
कर क्यों न फेंकें सारी
चीज़ें
फ़क़त
कमरों में टहला क्यों
करें हम
जो इक नस्ल-ए-फ़रोमाया को पहुँचे
वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम
नहीं
दुनिया को जब पर्वा
हमारी
तो फिर दुनिया की
पर्वा क्यूँ करें हम
बरहना
हैं सर-ए-बाज़ार
तो क्या
भला
अंधों से पर्दा क्यों
करें हम
हैं
बाशिंदे उसी बस्ती के
हम भी
सो ख़ुद पर भी
भरोसा क्यों करें हम
चबा
लें क्यों न ख़ुद ही
अपना ढाँचा
तुम्हें
रातिब मुहय्या क्यों करें हम
पड़ी
रहने दो इंसानों की
लाशें
ज़मीं
का बोझ हल्का क्यों
करें हम
ये बस्ती है मुसलमानों की
बस्ती
यहाँ
कार-ए-मसीहा क्यूँ
करें हम
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या……
उम्र
गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़
ही देंगे मुझ को दान
में क्या
मेरी
हर बात बे-असर
ही रही
नुक़्स
है कुछ मिरे बयान
में क्या
मुझ
को तो कोई टोकता
भी नहीं
यही
होता है ख़ानदान में
क्या
अपनी
महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान
में क्या
ख़ुद
को जाना जुदा ज़माने
से
आ गया था मिरे
गुमान में क्या
शाम
ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं
नुक़सान तक दुकान में
क्या
ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल
की शफ़क़
तू नहाती है अब भी
बान में क्या
बोलते
क्यूँ नहीं मिरे हक़
में
आबले
पड़ गए ज़बान में
क्या
ख़ामुशी
कह रही है कान
में क्या
आ रहा है मिरे
गुमान में क्या
दिल
कि आते हैं जिस
को ध्यान बहुत
ख़ुद
भी आता है अपने
ध्यान में क्या
वो मिले तो ये
पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं
तिरी अमान में क्या
यूँ
जो तकता है आसमान
को तू
कोई
रहता है आसमान में
क्या
है नसीम-ए-बहार
गर्द-आलूद
ख़ाक
उड़ती है उस मकान
में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ
नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था
जहान में क्या
ये ग़म क्या दिल की आदत है, नहीं तो…..
ये ग़म क्या दिल
की आदत है, नहीं
तो
किसी
से कुछ शिकायत है,
नहीं तो
किसी
के बिन किसी की
याद के बिन
जिए
जाने की हिम्मत है, नहीं तो
है वो इक ख़्वाब-ए-बे-ताबीर
उस को
भुला
देने की नीयत है,
नहीं तो
किसी
सूरत भी दिल लगता
नहीं, हाँ
तो कुछ दिन से
ये हालत है, नहीं
तो
तिरे
इस हाल पर है
सब को हैरत
तुझे
भी इस पे हैरत
है, नहीं तो
हम-आहंगी नहीं दुनिया से
तेरी
तुझे
इस पर नदामत है,
नहीं तो
हुआ
जो कुछ यही मक़्सूम
था क्या
यही
सारी हिकायत है, नहीं तो
अज़िय्यत-नाक उम्मीदों से
तुझ को
अमाँ
पाने की हसरत है,
नहीं तो
तू रहता है ख़याल-ओ-ख़्वाब में
गुम
तो इस की वज्ह
फ़ुर्सत है, नहीं तो
सबब
जो इस जुदाई का
बना है
वो मुझ से ख़ूबसूरत
है, नहीं तो
ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें....By शबीना अदीब
ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है
अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है
अभी न आएगी नींद तुम को अभी न हम को सुकूँ मिलेगा
अभी तो धड़केगा दिल ज़ियादा अभी ये चाहत नई नई है
बहार का आज पहला दिन है चलो चमन में टहल के आएँ
फ़ज़ा में ख़ुशबू नई नई है गुलों में रंगत नई नई है
जो ख़ानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना
तुम्हारा लहजा बता रहा है तुम्हारी दौलत नई नई है
ज़रा सा क़ुदरत ने क्या नवाज़ा कि आ के बैठे हो पहली सफ़ में
अभी से उड़ने लगे हवा में अभी तो शोहरत नई नई है
बमों की बरसात हो रही है पुराने जाँबाज़ सो रहे हैं
ग़ुलाम दुनिया को कर रहा है वो जिस की ताक़त नई नई है
Thursday, January 26, 2023
आवारा भीड़ के खतरे
दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी ख़तरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.
लेखक: हरिशंकर परसाई
Saturday, August 20, 2022
फेंक जहां तक भाला जाए...
By वाहिद अली वाहिदकब तक बोझ संभाला जाए
द्वंद्व कहां तक पाला जाए
दूध छीन बच्चों के मुख से
क्यों नागों को पाला जाए
दोनों ओर लिखा हो भारत
सिक्का वही उछाला जाए
तू भी है राणा का वंशज
फेंक जहां तक भाला जाएइस बिगड़ैल पड़ोसी को तोफिर शीशे में ढाला जाए
तेरे मेरे दिल पर ताला
राम करें ये ताला जाए
वाहिद के घर दीप जले तो
मंदिर तलक उजाला जाएकब तक बोझ संभाला जाए
युद्ध कहां तक टाला जाए
तू भी राणा का वंशज
फेंक जहां तक भाला जाए
Sunday, November 14, 2021
ग़ज़ल l Ghazal by Alok Srivastav
लिखी रखी है पटकथा, मनुष्य पात्र है.
नए नियम समय के हैं~ असत्य; सत्य है,
भरा पड़ा है छल से जो वही सुपात्र है.
विचारशील मुग्ध हैं ‘कथित प्रसिद्धि’ पर,
विचित्र है समय, विवेक शून्य-मात्र है.
है साम-दाम-दंड-भेद का नया चलन,
कि जो यहाँ सुपात्र है, वही कुपात्र है.
घिरा हुआ है पार्थ-पुत्र चक्रव्यूह में,
असत्य सात और सत्य एक मात्र है.
कहीं कबीर, सूर की, कहीं नज़ीर की,
परम्परा से धन्य ये ग़ज़ल का छात्र है.