Monday, June 2, 2025

अच्छा नहीं लगता...जावेद अख़्तर

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल* रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ाएदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता

मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता

बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती
ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर** अच्छा नहीं लगता

ये क्यूँ बाक़ी रहे आतिश-ज़नो ये भी जला डालो
कि सब बे-घर हों और मेरा हो घर अच्छा नहीं लगता

* इसका अर्थ है कि कोई चीज/रास्ता जो पहले से ही इस्तेमाल की गई है, या उस पर बार-बार पैर रखे जा चुके हैं
** शजर का अर्थ पेड़ होता है

ज़रा देख तो लो...जावेद अख़्तर

जीना मुश्किल है कि आसान ज़रा देख तो लो
लोग लगते हैं परेशान ज़रा देख तो लो

ये नया शहर तो है ख़ूब बसाया तुम ने
क्यूँ पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो

इन चराग़ों के तले ऐसे अँधेरे क्यूँ है
तुम भी रह जाओगे हैरान ज़रा देख तो लो

तुम ये कहते हो कि मैं ग़ैर हूँ फिर भी शायद
निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो

ये सताइश* की तमन्ना ये सिले** की परवाह
कहाँ लाए हैं ये अरमान ज़रा देख तो लो

*प्रशंसा
**परिणाम

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों / गोपालदास "नीरज"

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!

Sunday, May 25, 2025

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते... By सलमान अख़्तर

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते
दीवार बहानों की गिरा क्यों नहीं देते

तुम पास हो मेरे तो पता क्यों नहीं चलता
तुम दूर हो मुझसे तो सदा* क्यों नहीं देते

कुछ घुट सी गयीं हैं मेरे जज़्बात की साँसे 
तुम अपने इरादों की हवा क्यों नहीं देते 

एक अपने सिवा और किसी को भी न चाहा 
ये बात ज़माने को बता क्यों नहीं देते 

बाहर की हवाओं का अगर खौफ है इतना
जो रौशनी अंदर है, बुझा क्यों नहीं देते

*आवाज़ 

खुल के बातें करें सुनाएँ सब....By सलमान अख़्तर

खुल के बातें करें सुनाएँ सब
कोई तो हो जिसे बताएँ सब

रात फिर कश्मकश में गुज़री है
थोड़ा बतला दें या छुपाएँ सब

कुछ तो अपने लिए भी रखना है
ज़ख़्म औरों को क्यूँ दिखाएँ सब

ले चलूँ आओ तुम को मंज़िल तक
मुझ से कहती हैं ये दिशाएँ सब

काम लोगों के दिल को भा जाए
दिल अगर काम में लगाएँ सब

Saturday, May 17, 2025

करि न फकीरी...संतोष आनंद

करना फकीरी फिर क्या दिलगिरी सदा मगन में रहना जी,
कोई दिन हाथी कोई दिन घोडा कोई दिन पैदल चलना जी,

कैसा भी हो वक्त मुसाफिर पल भर न घबराना जी,
कोई दिन लड्डू न कोई दिन पेड़ा कोई दिन फाखम फाका जी,  

कोई  फरक नहीं होता है राजा और भिखारी में
दोनों की सांसे काटी हैं समय की तेज़ कटारी ने
अपनी ही रफ़्तार से हरदम समय का पहिया चलता जी
कोई दिन महला न कोई दिन सेजा कोई दिन खाक बिछाना जी

माँ से अच्छा कुछ नहीं होता माँ तू ही परमेश्वर है
हरदम मेरे मन मंदिर में तेरी  ज्योत उजागर है
सारे रिश्ते नाते झूठे माँ का प्यार ही सच्चा जी
कोई दिन भइया न कोई दिन बहना सब दिन माँ की ममता जी

कुछ भी पाए गर्व न करिओ दुनियां आनी जानी है
तेरे साथ जहाँ से तेरी परछाई भी जानी है
सबको अपना प्यार बाटना मीठा बोल बोलना जी
कोई दिन मेला कोई दिन अकेला कोई दिन ख़तम झमेला जी

Wednesday, May 14, 2025

न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है / उदयप्रताप सिंह

न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है

हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है

जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है

अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है

हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है

ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है

उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है

Monday, May 12, 2025

कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे... गोपालदास "नीरज"

स्वप्न झड़े फूल से मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

नींद भी खुली न थी कि हाए धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात पात झड़ गए कि शाख़ शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी, न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफ़्न गए
साथ के सभी दिए धुआँ धुआँ पहन गए
और हम झुके झुके मोड़ पर रुके रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल फूल प्यार कर उठा
क्या सरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली कली कि घुट गई गली गली
और हम लुटे लुटे वक़्त से पिटे पिटे
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वो उठी लहर कि दह गए क़िलए' बिखर बिखर
और हम डरे डरे नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

माँग भर चली कि एक जब नई नई किरन
ढोलकें धमक उठीं ठुमक उठे चरन चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड पड़ा बहक उठे नयन नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वो गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अंजान से दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे

Saturday, May 10, 2025

ज़िन्दगी की ना टूटे लड़ी....By संतोष आनंद

ज़िन्दगी की ना टूटे लड़ी प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी लम्बी लम्बी उमरिया को छोड़ो प्यार की एक घड़ी है बड़ी

उन आँखों का हँसना भी क्या जिन आँखों में पानी न हो वो जवानी जवानी नहीं जिसकी कोई कहानी न हो आंसू है ख़ुशी की लड़ी

मितवा, तेरे बिना लागे ना रे जियरा, लागे ना

आजसे अपना वादा रहा हम मिलेंगे हर एक मोड़ पर दिल की दुनिया बसाएंगे हम ग़म की दुनिया का दर छोड़ कर जीने मरने की किसको पड़ी

लाख गहरा हो सागर तो क्या प्यार से कुछ भी गहरा नहीं दिल की दीवानी हर मौज पर आसमानों का पहरा नहीं टूट जाएगी हर हथकड़ी


देख ली ख्वाब की हर गली
मेरे दिल को मिला ना सुकूँ
तेरे बिन कैसे जीवन जीया
तू मिले तो तुझी से कहूँ
बेवजह उम्र ढोनी पड़ी

प्यार करले घड़ी दो घड़ी

ओ मितवा, ओ मितवा मितवा रे मितवा लागे ना रे जियरा

एक प्यार का नगमा है....By संतोष आनंद

एक प्यार का नगमा है
मौजों की रवानी है
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

कुछ पाकर खोना है
कुछ खोकर पाना है
जीवन का मतलब तो
आना और जाना है
दो पल के जीवन से
इक उम्र चुरानी है

ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

तू धार है नदिया की
मैं तेरा किनारा हूँ
तू मेरा सहारा है
मैं तेरा सहारा हूँ
आँखों में समंदर है
आशाओं का पानी है

ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

तूफ़ान को आना है
आ कर चले जाना है
बादल है ये कुछ पल का
छा कर ढल जाना है
परछाईयाँ रह जाती
रह जाती निशानी है

ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

जो बीत गया है वो
अब दौर न आएगा
इस दिल में सिवा तेरे
कोई और न आएगा
घर फूँक दिया हमने
अब राख उठानी है

जिंदगी और कुछ भी नही
तेरी मेरी कहानी है

तुम साथ न दो मेरा
चलना मुझे आता है
हर आग से वाक़िफ़ हूं 
जलना मुझे आता है 
तदबीर के हा‌थों से 
तक़दीर बनानी है 

ज़िंदगी और कुछ नहीं
तेरी मेरी कहानी है

एक प्यार का नगमा है
मौजों की रवानी है
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

Friday, May 2, 2025

आने वाले हैं शिकारी मेरे गाँव में / राजेन्द्र राजन (गीतकार)

आने वाले हैं शिकारी मेरे गाँव में
जनता है चिन्ता की मारी मेरे गाँव में

फिर वही चौराहे होंगे, प्यासी आँख उठाए होंगे
सपनों भीगी रातें होंगी, मीठी-मीठी बातें होंगी
मालाएँ पहनानी होंगी, फिर ताली बजवानी होगी
दिन को रात कहा जाएगा, दो को सात कहा जाएगा
आने वाले हैं मदारी मेरे गाँव में
जनता है चिन्ता की मारी मेरे गाँव में

शब्दों-शब्दों आहें होंगी, लेकिन नक़ली बाँहें होंगी
तुम कहते हो नेता होंगे, लेकिन वे अभिनेता होंगे
बाहर-बाहर सज्जन होंगे, भीतर-भीतर रहजन होंगे
सब कुछ है फिर भी माँगेंगे, झुकने की सीमा लाँघेंगे
आने वाले हैं भिखारी मेरे गाँव में
जनता है चिन्ता की मारी मेरे गाँव में

उनकी चिन्ता जग से न्यारी, कुरसी है दुनिया से प्यारी
कुरसी है तो भी खल-कामी, बिन कुरसी के भी दुष्कामी
कुरसी रस्ता कुरसी मंज़िल, कुरसी नदिया कुरसी साहिल
कुरसी पर ईमान लुटाएँ, सब कुछ अपना दाँव लगाएँ
आने वाले हैं जुआरी मेरे गाँव में
जनता है चिन्ता की मारी मेरे गाँव में

केवल दो गीत लिखे मैंने / राजेन्द्र राजन (गीतकार)

केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का

सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किए जो टूट गए
कितने ही साथी छूट गए
पर्वत रोए-सागर रोए
नयनों ने भी मोती खोए
सौगन्ध गुँथी सी अलकों में
गंगा-जमुना-सी पलकों में 
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का

बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर, श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी है मजबूरी
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल, जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हँसने का
इक रंग तुम्हारे रोने का

केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का

Wednesday, April 23, 2025

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले...भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले

उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएँ और गाएँ
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएँ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में

ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गए।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बाँधकर खड़े हो गए सब विनती में

हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएँ
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएँ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पाँचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में

उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना!

Friday, January 31, 2025

बचपन में हम पैदल स्कूल जाते थे....

https://www.youtube.com/watch?v=HnVIxCtZk1A

युद्ध नहीं जिनके जीवन में.....By Poet अर्जुन सिसोदिया

युद्ध नहीं जिनके जीवन में
वे भी बहुत अभागे होंगे
या तो प्रण को तोड़ा होगा
या फिर रण से भागे होंगे
दीपक का कुछ अर्थ नहीं है
जब तक तम से नहीं लड़ेगा
दिनकर नहीं प्रभा बाँटेगा
जब तक स्वयं नहीं धधकेगा

कभी दहकती ज्वाला के बिन
कुंदन भला बना है सोना
बिना घिसे मेहंदी ने बोलो
कब पाया है रंग सलौना
जीवन के पथ के राही को
क्षण भर भी विश्राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

अपना अपना युद्ध सभी को
हर युग में लड़ना पड़ता है
और समय के शिलालेख पर
खुद को खुद गढ़ना पड़ता है
सच की खातिर हरिश्चंद्र को
सकुटुम्ब बिक जाना पड़ता
और स्वयं काशी में जाकर
अपना मोल लगाना पड़ता

दासी बनकरके भरती है
पानी पटरानी पनघट में
और खड़ा सम्राट वचन के
कारण काशी के मरघट में
ये अनवरत लड़ा जाता है
होता युद्ध विराम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

हर रिश्ते की कुछ कीमत है
जिसका मोल चुकाना पड़ता
और प्राणपण से जीवन का
हर अनुबंध निभाना पड़ता
सच ने मार्ग त्याग का देखा
झूठ रहा सुख का अभिलाषी
दशरथ मिटे वचन की खातिर
राम जिये होकर वनवासी

पावक पथ से गुजरीं सीता
रही समय की ऐसी इच्छा
देनी पड़ी नियति के कारण
सीता को भी अग्नि परीक्षा
वन को गईं पुनः वैदेही
निरपराध ही सुनो अकारण
जीतीं रहीं उम्रभर बनकर
त्याग और संघर्ष उदाहरण

लिए गर्भ में निज पुत्रों को
वन का कष्ट स्वयं ही झेला
खुद के बल पर लड़ा सिया ने
जीवन का संग्राम अकेला
धनुष तोड़ कर जो लाए थे
अब वो संग में राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

By Poet - अर्जुन सिसोदिया

Friday, December 13, 2024

उर्दू शायर बशर नवाज़ की पंक्ति....

उन्हें कामयाबी में सुकून नजर आया तो वो दौड़ते गए

हमें सुकून में कामयाबी दिखी तो हम ठहर गए

ख़्वाईशो के बोझ में बशर तू क्या क्या कर रहा है

इतना तो जीना भी नहीं जितना तू मर रहा है

Saturday, October 19, 2024

ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़लें...

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है हवा चल रही है
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आँखों के चराग़ों में उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे
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वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं
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मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मज़ा याद आ गया
तुम क्यूँ उदास हो गए क्या याद आ गया

कहने को ज़िंदगी थी बहुत मुख़्तसर मगर
कुछ यूँ बसर हुई कि ख़ुदा याद आ गया

बरसे बग़ैर ही जो घटा घिर कर खुल गयी एक बेवफ़ा का अहद ए वफ़ा याद आ गया
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अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं

इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं
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तिरे दर से उठ कर जिधर जाऊँ मैं
चलूँ दो क़दम और ठहर जाऊँ मैं

सँभाले तो हूँ ख़ुद को तुझ बिन मगर
जो छू ले कोई तो बिखर जाऊँ मैं
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Monday, October 14, 2024

जौन एलिया की शायरी.....

उस के पहलू से लग के चलते हैं……

उस के पहलू से लग के चलते हैं

हम कहीं टालने से टलते हैं

 

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ

और सब जिस तरह बहलते हैं

 

बंद है मय-कदों के दरवाज़े

हम तो बस यूँही चल निकलते हैं

 

वो है जान अब हर एक महफ़िल की

हम भी अब घर से कम निकलते हैं

 

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में

जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

 

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश

हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

 

है अजब फ़ैसले का सहरा भी

चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

 

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद

देखने वाले हाथ मलते हैं

 

तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुशबू

हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं


बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे……

बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे

सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे

 

कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं

क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे

 

हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई…….

हालत--हाल के सबब हालत--हाल ही गई

शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई

 

तेरा फ़िराक़ जान--जाँ ऐश था क्या मिरे लिए

या'नी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई

 

तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए

हालत--दिल कि थी ख़राब और ख़राब की गई

 

उस की उमीद--नाज़ का हम से ये मान था कि आप

उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई

 

एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक

बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई

 

बा' भी तेरे जान--जाँ दिल में रहा अजब समाँ

याद रही तिरी यहाँ फिर तिरी याद भी गई

 

उस के बदन को दी नुमूद हम ने सुख़न में और फिर

उस के बदन के वास्ते एक क़बा भी सी गई

 

सेहन--ख़याल--यार में की बसर शब--फ़िराक़

जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई

 

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से.....

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से

दर्द बदनाम तो नहीं होगा

हाँ दवा दो मगर ये बतला दो

मुझ को आराम तो नहीं होगा


शर्म दहशत झिझक परेशानी.....

शर्म दहशत झिझक परेशानी

नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं

आप वो जी मगर ये सब क्या है

तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं


नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम……

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम

 

ख़मोशी से अदा हो रस्म--दूरी

कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम

 

ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं

वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम

 

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत

अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम

 

सुना दें इस्मत--मरियम का क़िस्सा

पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम

 

ज़ुलेख़ा--अज़ीज़ाँ बात ये है

भला घाटे का सौदा क्यों करें हम

 

हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम

तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम

 

किया था अह्द जब लम्हों में हम ने

तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम

 

उठा कर क्यों फेंकें सारी चीज़ें

फ़क़त कमरों में टहला क्यों करें हम

 

जो इक नस्ल--फ़रोमाया को पहुँचे

वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम

 

नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी

तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम

 

बरहना हैं सर--बाज़ार तो क्या

भला अंधों से पर्दा क्यों करें हम

 

हैं बाशिंदे उसी बस्ती के हम भी

सो ख़ुद पर भी भरोसा क्यों करें हम

 

चबा लें क्यों ख़ुद ही अपना ढाँचा

तुम्हें रातिब मुहय्या क्यों करें हम

 

पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें

ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम

 

ये बस्ती है मुसलमानों की बस्ती

यहाँ कार--मसीहा क्यूँ करें हम

 

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या……

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या

दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या

 

मेरी हर बात बे-असर ही रही

नुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या

 

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं

यही होता है ख़ानदान में क्या

 

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं

हम ग़रीबों की आन-बान में क्या

 

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से

गया था मिरे गुमान में क्या

 

शाम ही से दुकान--दीद है बंद

नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या

 

मिरे सुब्ह--शाम--दिल की शफ़क़

तू नहाती है अब भी बान में क्या

 

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में

आबले पड़ गए ज़बान में क्या

 

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या

रहा है मिरे गुमान में क्या

 

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत

ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या

 

वो मिले तो ये पूछना है मुझे

अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या

 

यूँ जो तकता है आसमान को तू

कोई रहता है आसमान में क्या

 

है नसीम--बहार गर्द-आलूद

ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या

 

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता

एक ही शख़्स था जहान में क्या

 

ये ग़म क्या दिल की आदत है, नहीं तो…..

ये ग़म क्या दिल की आदत है, नहीं तो

किसी से कुछ शिकायत है, नहीं तो

 

किसी के बिन किसी की याद के बिन

जिए जाने की हिम्मत है, नहीं तो

 

है वो इक ख़्वाब--बे-ताबीर उस को

भुला देने की नीयत है, नहीं तो

 

किसी सूरत भी दिल लगता नहीं, हाँ

तो कुछ दिन से ये हालत है, नहीं तो

 

तिरे इस हाल पर है सब को हैरत

तुझे भी इस पे हैरत है, नहीं तो

 

हम-आहंगी नहीं दुनिया से तेरी

तुझे इस पर नदामत है, नहीं तो

 

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या

यही सारी हिकायत है, नहीं तो

 

अज़िय्यत-नाक उम्मीदों से तुझ को

अमाँ पाने की हसरत है, नहीं तो

 

तू रहता है ख़याल--ख़्वाब में गुम

तो इस की वज्ह फ़ुर्सत है, नहीं तो

 

सबब जो इस जुदाई का बना है

वो मुझ से ख़ूबसूरत है, नहीं तो